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इच्छा शक्ति से ही नियंत्रित हो सकेगा प्रदूषण

रजनीश कपूर
हम और आप जब भी कोई वाहन खऱीदते हैं तो हम उस वाहन की क़ीमत के साथ-साथ रोड टैक्स, जीएसटी आदि टैक्स भी देते हैं। इन सब टैक्स देने का मतलब हुआ कि यह सब राशि सरकार की जेब में जाएगी और घूम कर जनता के विकास के लिए इस्तेमाल की जाएगी। परंतु रोड टैक्स के नाम पर ली जाने वाली मोटी रक़म क्या वास्तव में जनता पर ख़र्च होती है?

बीते कुछ सप्ताह से दिल्ली एनसीआर और उत्तर भारत को प्रदूषण के बादलों ने घेर रखा है। इससे आम जीवन अस्त-व्यस्त हो चुका है। प्रदूषण की रोकथाम को लेकर सरकार ने कई तरह की पाबंदियाँ लगा दी हैं।
इसके चलते असमंजस की स्थिति बनी हुई है। लोग इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इन पाबंदियों के चलते कई रोजग़ारों पर भी असर पडऩे लगा है। निर्माण कार्य में लगे दिहाड़ी मज़दूर वर्ग इन पाबंदियों के चलते सबसे अधिक परेशान है।
तमाम टीवी चैनलों पर प्रदूषण के बिगड़ते स्तर पर काफ़ी बहस हो रही है। परंतु क्या किसी ने हमारे देश में प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए सही व ठोस कदम उठाने की बात की है?

क्या केवल निर्माण कार्यों और वाहनों पर प्रतिबंध से प्रदूषण के स्तर में कमी आएगी? ऐसे अनेकों कारण हैं जिन पर अगर सरकार ध्यान दे तो प्रदूषण में नियंत्रण पाया जा सकता है।
सबसे पहले बात करें वाहन प्रदूषण की। इस बात पर इसी कॉलम में कई बार लिखा जा चुका है कि एक विशेष आयु या श्रेणी के वाहन को प्रतिबंध करने से क्या प्रदूषण में कमी आएगी?
इसका उत्तर हाँ और नहीं दोनों ही है। यदि कोई वाहन, जो कि पुराने माणकों पर चल रहा है और उसके पास वैध पीयूसी प्रमाण पत्र नहीं है तो निश्चित रूप से ऐसे वाहन को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
परंतु यदि वही वाहन प्रदूषण के तय माणकों की सीमा में पाया जाता है तो उसे प्रतिबंधित करने का क्या औचित्य है?
हम और आप जब भी कोई वाहन खऱीदते हैं तो हम उस वाहन की क़ीमत के साथ-साथ रोड टैक्स, जीएसटी आदि टैक्स भी देते हैं।
इन सब टैक्स देने का मतलब हुआ कि यह सब राशि सरकार की जेब में जाएगी और घूम कर जनता के विकास के लिए इस्तेमाल की जाएगी।

परंतु रोड टैक्स के नाम पर ली जाने वाली मोटी रक़म क्या वास्तव में जनता पर ख़र्च होती है? क्या हमें अपनी महँगी गाडिय़ों को चलाने के लिए साफ़-सुथरी और बेहतरीन सडक़ें मिलती हैं?
टूटी-फूटी सडक़ों की समय-समय पर मरम्मत होती है? क्या देश भर में सडक़ों की मरम्मत करने वाली एजेंसियाँ अपना काम पूरी निष्ठा से करतीं हैं? इनमें से अधिकतर सवालों के जवाब आपको नहीं में ही मिलेंगे।
टूटी-फूटी सडक़ों पर वाहन अवरोधों के साथ चलने पर मजबूर होते हैं, नतीजा जगह-जगह ट्रैफिक़ जाम हो जाता है। ऐसे जाम में खड़े रहकर आप न सिफऱ् अपना समय ज़ाया करते हैं बल्कि महँगा ईंधन भी ज़ाया करते हैं।
जितनी देर तक जाम लगा रहेगा, आपका वाहन बंपर-टू-बंपर चलेगा और बढ़ते हुए प्रदूषण की आग में घी का काम करेगा। ऐसे में जिन वाहनों को पुराना समझ कर प्रतिबंधित किया जाता है, उनसे कहीं ज़्यादा मात्रा में नये वाहनों द्वारा प्रदूषण होता है।
इसलिए लोक निर्माण विभाग या अन्य एजेंसियों की यह जि़म्मेदारी होनी चाहिए कि वह सडक़ों को दुरुस्त रखें जिससे प्रदूषण को बढ़ावा न मिले।

इसके साथ ही ट्रैफिक़ नियंत्रण की समस्या भी एस समस्या है जिससे प्रदूषण को बढ़ावा मिलता है। मिसाल के तौर पर आपको आपके शहर में ऐसे कई चौराहे मिल जाएँगे जहां लाल-बत्ती की अवधि ज़रूरत और ट्रैफिक़ के प्रवाह के अनुसार मेल नहीं खाती।
नतीजा, ऐसे चौराहों पर ट्रैफिक़ की लंबी क़तारें। ऐसा नहीं है कि पूरा दिन ही ऐसे चौराहों पर लंबी क़तारें लगती हैं। ज़्यादातर क़तारें ट्रेफिक के पीक घंटों में लगती हैं।

यदि उस समय ट्रैफिक़ पुलिस द्वारा चुनिंदा चौराहों को नियंत्रित किया जाए तो जाम की समस्या पर आसानी से क़ाबू पाया जा सकता है। इसके लिए कुछ मामूली से ही परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।
आज गूगल मैप पर आप घर बैठे ही हर गली नुक्कड़ का ट्रैफिक़ देख सकते हैं। यदि ्लान कर सकते हैं तो ट्रैफिक़ कंट्रोल रूम के अधिकारी, संबंधित इलाक़े के ट्रैफिक़ अधिकारी को इस समस्या के प्रति झकझोर क्यों नहीं सकते?
ट्रैफिक़ को नियंत्रित करने के जैसे, ही प्रदूषण के अन्य कारकों पर भी लगाम कसी जा सकती है। ज़रूरत है तो इच्छा शक्ति की।
यहाँ आपको याद दिलाना चाहूँगा कि 2010 में जब हमारे देश में कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन हुआ था तो दिल्ली में एक ऐसी व्यवस्था बनाई गई थी कि ट्रैफिक़ जाम नहीं होते थे।

जगह-जगह पर ट्रैफिक़ पुलिस के सिपाही ट्रैफिक़ पर पैनी नजऱ बनाए हुए थे। यानी डंडे के ज़ोर पर व्यवस्था को नियंत्रित किया जा रहा था।
यदि एक ट्रैफिक़ की समस्या को डंडे के ज़ोर पर, किसी विशेष इंतज़ाम के लिए नियंत्रित जा सकता है तो आम दिनों में क्यों नहीं?
अब बात करें दीपावली के बाद हर वर्ष होने वाली पराली जलाए जाने की। यह बात जाग-ज़ाहिर है कि पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान हर वर्ष इन्हीं दिनों पराली जलाते हैं।

यह समस्या हर वर्ष प्रदूषण का कारण बनती है। हर वर्ष बड़ी-बड़ी बातें और घोषणाएँ की जाती हैं लेकिन इस समस्या के समाधान के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते।
यदि कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन हो या कोविड के दौरान लॉकडाउन लागू करना हो, जब इन्हें सख़्ती से लागू किया जा सकता है तो पराली को जलाने से क्यों नहीं रोका जा सकता?

ठीक उसी तरह कारख़ानों से निकलने वाले धुएँ को भी नियंत्रित करना असंभव नहीं है। सरकार चाहे तो इस राह में ठोस कदम उठा कर प्रदूषण को नियंत्रण में ला सकती है।
केवल नारों, घोषणाओं और प्रतिबंधों से नहीं इच्छा शक्ति से ही नियंत्रित हो सकेगा प्रदूषण। जहां चाह वहाँ राह!