किसी भी आंदोलन की आत्मा उसके पीछे निहित भावना होती है
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के पीछे जन भावना क्षेत्रीय विकास की थी
उत्तरप्रदेश के हिस्से के रूप में पर्वतीय क्षेत्र विकास को तरस गया था और यहीं से पृथक राज्य आंदोलन की नींव पड़ी
आंदोलन की अन्य भावनाओं के साथ एक यह भावना भी निहित थी कि पहाड़ की राजधानी पहाड़ पर ही होनी चाहिए
पहले जनता का दमन फिर भावनाओं का शमन
पृथक राज्य आंदोलन के समय उत्तराखंड की जनता को पुलिस और अर्धसैनिक बालों की बर्बरता का सामना करना पड़ा
युवाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी, रामपुर तिराहा काण्ड , श्रीयंत्र द्वीप बर्बरता, मसूरी गोलीकांड इत्यादि आज भी नासूर की तरह टीसता है
जब आंदोलन सफल हो गया तो राज्य का नाम उत्तराखंड की जगह उत्तराँचल रखा गया जो कि स्पष्ट रूप से जन भावनाओं से खिलवाड़ था
बाद में करोड़ों रूपए खर्च कर नाम बदल कर उत्तराखंड रख दिया गया क्या वो धन जन कल्याण कार्यों में खर्च नहीं किया जा सकता था
क्या पहले ही उत्तराखंड नाम रख कर यह खर्च नहीं बचाया जा सकता था
इसी तरह दूसरा मुद्दा राजधानी गैरसैंण बनाने का था
जिसकी जगह महज आरामतलबी और सहूलियत के लिए देहरादून को राजधानी बना दिया गया और जनता को अस्थायी शब्द का झुनझुना पकड़ा दिया गया
जनता फिर आंदोलन करती रही और इस बार दमन उत्तराखंड पुलिस कर रही थी
बाबा मोहन उत्तराखंडी का बलिदान इसका जीता जागता उदाहरण है
राजधानी गैरसैंण ही क्यों
जन भावना के पीछे हमेशा एक ठोस कारण होता है
गैरसैंण चमोली जिले में अवस्थित एक मनोरम स्थल है
यहाँ राजधानी बनने से पूरा पर्वतीय क्षेत्र विकास की जद में आ जाता
उत्तरकाशी, नयी टिहरी, और हरिद्वार को छोड़ कर अन्य सभी जिले देहरादून की अपेक्षा गैरसैंण के निकट हैं
यहाँ राजधानी होने पर गढ़वाल और कुमायूं दोनों मंडल राजधानी के निकट हो जाते
साथ ही सड़क स्कूल हॉस्पिटल इत्यादि का भी पर्वतीय क्षेत्रों में तेजी से विकास होता
नेता और अधिकारी पहाड़ की पीड़ा और आवश्यकताओं को बेहतर तरीके से समझ पाते
परन्तु देहरादून की दिल्ली से नजदीकी इन सब पर भारी पड़ गयी
और पहाड़ के विकास के लिए हुआ राज्य आंदोलन मैदानी सहूलियत की भेंट चढ़ गया
राजधानी या राजनीति
कहते हैं कि जब मुद्दों से जनता का ध्यान भटकना हो तो जन भावना को सामने रख दो
भारत की राजनीति में राम मंदिर और पाकिस्तान तथा उत्तराखंड की राजनीति में गैरसैंण केवल नेताओं का हित साधने का जरिया हो कर रह गए हैं
जब भी सरकार पर दबाव बनता है ये मुद्दे संकटमोचक का किरदार निभा देते हैं
फ़िलहाल कोरोना मिसमैनेजमेंट पर घिरी सरकार ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बना कर यही तुरुप का पत्ता फेंका है और विपक्षी दल भी भावना आहत होने की बीन बजा रहे हैं
इस प्रकार मूल मुद्दों से सबका ध्यान हट गया है
दो राजधानियों का सबब
1 . मात्र तेरह जिलों के राज्य में दो राजधानियों की क्या आवश्यकता है ?
2. क्या यह कर्ज से दबे राज्य पर दोगुना भार नहीं है ?
3. क्या नेता और अधिकारी केवल ग्रीष्म काल में सुखद जलवायु का आनंद भर लेंगे और वर्षा ऋतु और शीट काल का कठोर समय बस जनता के लिए सौगात रहेगा ?
4. माननीय राज्यपाल का स्थायी आवास गैरसैंण में क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए ?
5. देहरादून का मोह कब नेता कब त्यागेंगे ?
समस्या का मूल कारण यह है कि उत्तराखंड में अब तक कांग्रेस और भाजपा की ही सरकार बनी है और राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय समस्याओं को नहीं समझते हैं
चाहे राष्ट्रीय नेता डबल इंजन का भरोसा दिला कर चुनाव जीत लें लेकिन सच यह है कि राज्य के मूल मुद्दों की न तो उनको जानकारी होती है और न ही वो इसकी सुध लेते हैं
उत्तराखंड की विडम्बना यह है की यहाँ के क्षेत्रीय दल डीएमके और एआइएडीएमके की तरह मजबूत नहीं बन पाए कि प्रदेश के मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचा सकें और प्रदेश में सरकार बना कर राज्य को राज्य आंदोलन की मूल भावना के अनुसार प्रगति के पथ पर ले जा सकें