पूरे विश्व में इस्लामिक देशों की राजनीति का अपना महत्व है। मुस्लिम विश्व की सरपरस्ती कौन सा देश करता है यह हमेशा से वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण रहा है।
लंबे समय तक यह ताज तुर्की की उस्मानिया खिलाफत के सिर पर था, जो प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही जाकर हटा।
इसके बाद से विश्व में हुई तमाम हलचलों और शीत युद्ध ने इस्लामिक विश्व को तकनीकी रूप से काफी पीछे छोड़ दिया।
साथ ही इस्लामिक जगत की लीडरशिप भी खंडित हो गई।
अब सऊदी अरब, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्की इस के प्रबल दावेदार हैं।
इन सब में भी पिछले कुछ समय से तुर्की अपना दावा मजबूत करने का कड़ा प्रयास कर रहा है।
इसमें सबसे बड़ी भूमिका है वहां के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन की…..
रजब तैयब एर्दोआन मुस्लिम विश्व की रहनुमाई करने के लिए दुनिया के लगभग हर मुद्दे पर अपनी राय रखने के साथ-साथ, कार्यवाही करने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं।
फ्रांस में हुई घटना के बाद फ्रांस के राष्ट्रपति के बयान पर जब बाकी सभी देश मौन थे, तो अर्दवान ने उन्हें मानसिक इलाज कराने की सलाह तक दे दी,
यहां तक कि उन्होंने यूरोप में मुसलमानों के दमन पर भी सवाल उठा दिए।
भारत के साथ भी तुर्की के संबंध बिगड़ते जा रहे हैं,
क्योंकि तुर्की खुलकर कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के पक्ष में बयान बाजी कर रहा है।
अर्दवान ने संयुक्त राष्ट्र तक में जम्मू कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाए जाने का विरोध किया था।
पाकिस्तान और तुर्की के बीच सैन्य सहयोग भी बढ़ रहा है, और वह सांस्कृतिक रूप से भी एक दूसरे से जुड़ते जा रहे हैं।
अर्दवान कुछ ऐसी मुहिम भी चला रहे हैं जो उन्हें मुस्लिम विश्व में मजबूत स्थान दिलवा रही है।
गत जुलाई में उन्होंने तुर्की के हाया सोफिया संग्रहालय को मस्जिद में बदल दिया है।
हाया सोफिया को एक गिरजाघर के रूप में बनाया गया था, लेकिन बाद में इसे मस्जिद में बदल दिया गया था और फिर 1935 में मुस्तफा कमाल पाशा ने इसे संग्रहालय के रूप में बदल दिया।
यद्यपि अर्दवान यह कहते हैं कि वह तुर्की की जीवन शैली पर इस्लामिक मूल्यों को नहीं लादना चाहते, लेकिन उनके बयान इससे जुदा हैं।
वह कहते हैं कि तुर्की के लोग अपने धर्म के प्रति अपनी आस्था का प्रदर्शन कर सकते हैं।
किसी भी मुस्लिम को जनसंख्या नियंत्रण के बारे में नहीं सोचना चाहिए।
फेमिनिस्ट विचारधारा की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा है कि पुरुष और महिला एक बराबर नहीं देखे जा सकते।
स्वयं उनकी पार्टी की जड़ें भी कट्टर इस्लामिक ताकतों से सींची हुई बताई जाती हैं।
यद्यपि अर्दवान राष्ट्रपति बनने के बाद काफी नरम रवैया रखते थे। परंतु देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ने के बाद जब सेना ने उनका तख्तापलट करने की कोशिश की तो उन्होंने उस तख्तापलट को कुचलने के बाद कट्टर तेवर दिखाने शुरू कर दिए।
फिलहाल तुर्की में महंगाई तेजी से बढ़ रही है और कोरोना संक्रमण ने पूरे विश्व के साथ-साथ तुर्की की आर्थिक स्थिति को भी झटका दिया है।
विशेषज्ञ यह कहते हैं कि जनता का ध्यान इन बातों से भटकाने के लिए अर्दवान तुर्की को एक शक्तिशाली देश के रूप में दिखाना चाहते हैं, और कई अन्य देशों के प्रमुख भी इसी तरह के कार्य कर रहे हैं।
यही कारण है कि हाल ही में उन्होंने अज़रबैजान और आर्मीनिया के युद्ध में खुलकर अज़रबैजान का साथ दिया।
वहीं दूसरी ओर अर्दवान की विदेश नीति भी इस्लाम से जुड़ गई है और वह दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रीका के देशों में मस्जिद बनवाने में सहायता करने से लेकर धार्मिक शिक्षा तक की व्यवस्था कर रहे हैं।
मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड को भी समर्थन देना इसी की एक कड़ी है।
यद्यपि सऊदी अरब तुर्की और अर्दवान के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है,
लेकिन सऊदी अरब की इस्लामिक नियमों के प्रति नरमी से इस्लामिक विश्व अब एक नया नेतृत्व ढूंढता देख रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि तुर्की और अरब कभी एक साथ नहीं आ पाएंगे, वहीं ईरान भी अपनी खिचड़ी अलग पका रहा है।
ऐसे में अर्दवान की नीतियां उन्हें कहां तक लेकर जाती हैं यह भविष्य के गर्भ में छुपा है।
लेकिन यह तो तय है कि अर्दवान तुर्कों सहित बहुत से मुसलमानों को उस्मानिआ खिलाफत के वैभव का ख्वाब दिखा चुके हैं।