मदरसे भारत में प्राथमिक शिक्षा की नींव हैं और गरीब परिवारों के बच्चों के लिये शिक्षा का एकमात्र साधन
भारत में इस पद्यति की नींव सुल्तान इल्तुतमिश ने नासिरिया मदरसे के रूप में डाली
और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक हाथ में कुरान और एक हाथ में कम्प्यूटर का नारा दे कर इसे आधुनिकता से जोड़ने का वायदा किया |
लेकिन लॉकडाउन की इस परिस्थिति में मदरसों के हाल पर मोहम्मद ख़ालिद हुसैन ने मदरसों के हालात पर सटीक टिप्पणी की है
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इस समय कोरोना हमारे दीनी मदारिस, यतीम खाने, मदरसे के शिक्षकों और मदरसे के छात्रों और दूसरे इस्लामी तालीमी अदारों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन कर आया है।
इस तरह का कोई भी अदारा आम लोगों के तआवुन से ही चलता है।
साफ शब्दों में कहें तो ये ज़कात या खैरात के पैसों से चलता है।
रमज़ान शुरू होने के पहले से ही मदरसे के मौलवी हजरात और दीगर आदारों के अराकीन बड़े शहरों, महानगरों का रुख करते हैं।
यहां से जो भी चंदा जमा होता है, ये अदारे उसी पैसे से साल भर खर्च करके बच्चों के खाने पीने का इंतजाम, उनकी पढ़ाई लिखाई, मदर्रसीन कि तनख़ाह, और दूसरे स्टाफ कि तनख़ाह वगैरह का इंतजाम उसी पैसे से करते हैं।
लेकिन भारत में कोरोना संक्रमण के बाद से लॉक डाउन लागू हो जाने के बाद इन अदारों के आराकीन इस साल चंदा करने के लिए निकल नहीं पाए।
इसकी मार इस साल लगभग देश भर के लाखों मदरसों, यतीम खाने, मदरसे के शिक्षकों और मदरसे के छात्रों और दूसरे इस्लामी तालीमी अदारों पर पड़ेगी।
मुस्लिम समुदाय के बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आकर इन आदारों कि मदद करने का कोई न कोई हल ढूंढना होगा ताकि ये अदारे अपने खर्च की जरूरतों को पूरा कर सकें।
ये दीनी मदारिस और ये तालीमी अदारे ही अब दीने इस्लाम की बक़ा की ज़मानत हैं।
इनका जिंदा रहना बहुत जरूरी है।
ये तस्वीरें मेरे गांव के मदरसे “जामिया कादरिया” की हैं।
– मोहम्मद ख़ालिद हुसैन