देहरादून घाटी उत्तर में मध्य हिमालय और दक्षिण में शिवालिक से घिरी एक सुरम्य घाटी है. जो उत्तर में कालसी से मुनि की रेती और दक्षिण में पाओन्टा साहब से हरिद्वार तक फैली है। गंगा इसकी पूर्वी सीमा और यमुना इसकी पश्चिमी सीमा का निर्माण करती हैं, और इस प्रकार यह घाटी दोनों नदियों के बीच महत्वपूर्ण जल विभाजक की भूमिका निभाती है।
अपनी जलवायु, मौसम, वनस्पति और जीव विविधता के लिये प्रसिद्ध दून घाटी कभी पर्यटन के लिये प्रसिद्ध थी। परन्तु राज्य निर्माण के बाद देहरादून राजधानी बनी और तेजी से हुए अनियोजित ‘कथित’ विकास कार्यों ने दून घाटी की पारिस्थितिकी की बलि ले ली।
दून घाटी से गुजरने वाली प्रमुख नदियां रिस्पना, बिंदाल, सोंग और सुसवा हैं। सोंग नदी तो बाहरी क्षेत्र में पड़ने के कारण काफी हद तक सुरक्षित है परन्तु शहर के बीच से गुजरने वाली रिस्पना और बिंदाल नदियां नदी क्षेत्र अतिक्रमण, खनन और प्रदूषण के कारण मृतप्राय हो चुकी हैं।
कभी सदानीरा रही रिस्पना और बिंदाल नदियां लगभग सूख चुकी हैं या नाले या नालियों के रूप में बह रही हैं। वर्षा के बाद इन नदियों में पानी उफनता है परन्तु वह भी शहर भर के सीवरों और जनता द्वारा फेंकी जा रही गंदगी को साफ नहीं कर पाता है। तिस पर अतिक्रमण हटाने के स्थान पर, जनता को वोट बैंक में बदलने के लिये उन अतिक्रमणों की सुरक्षा हेतु पुश्ते बना कर नदी के प्रवाह और विस्तार को अवरुद्ध कर दिया गया है।
यह दोनों नदियां मोथरोवाला पुल के निकट मिल कर सुसवा नदी का निर्माण करती हैं, जो गंगा की सहायक नदी है।
सुसवा नदी दून घाटी को सहारनपुर और हरिद्वार से अलग करते हुए रायवाला में गंगा से मिल जाती है। दूधली, मोतीचूर और कांसरो के जंगलों से गुजरती यह नदी राजा जी राष्ट्रीय उद्यान और टाइगर रिजर्व की जीवन रेखा है। एक समय यह नदी जैव विविधता से परिपूर्ण थी तथा इस नदी के तट पर उगने वाली एक वनस्पति सुसवा साग के लिये प्रसिद्ध थी, लोग दूर दूर से यह साग लेने के लिये मोथरोवाला और दूधली तक आते थे। इस नदी के पानी की सिंचाई से आसपास के क्षेत्रों में बासमती धान की शानदार फसल उगती थी जिससे निकलने वाला चावल अपनी खुशबू और लंबाई के कारण पूरी दुनिया में प्रसिद्ध था
इस नदी की मछलियां स्थानीय लोगों के मत्स्यन का स्रोत थीं और साथ ही उच्च जैव विविधता का कारण थीं। यह नदी असंख्य जल पक्षियों का आवास थी और वन्य जीवों के पेयजल का स्रोत भी थी।
परन्तु आज सुसवा नदी मरणावस्था में है। नदी में गिरते खुले सीवर और औद्योगिक रसायनों की नदी में ड्रेनिंग से पानी का रंग काला हो गया है साथ ही आए दिन केमिकल ड्रेनिंग के कारण पानी में झाग दिखता रहता है। नदी के जल में भारी धातु रसायन और कोलीफार्म बैक्टीरिया की भारी मात्रा पाई जा रही है और इस विष की सांद्रता रोज बढ़ रही है। नदी के किनारे खुले में शौच करते बाहरी मजदूर और रिवर बेड को कूड़ेदान बनाती स्थानीय जनता ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है।
अब नदी में सुसवा साग नहीं उगता है, बासमती की खुशबू समाप्त हो गई और उपज भी कम हो गई है, इसीलिये किसानों ने गन्ना उगाना शुरू कर दिया है, जिससे विश्वप्रसिद्ध देहरादूनी बासमती की जोत का क्षेत्र सिकुड़ गया है। नदी में अब मछलियां नहीं मिल रही हैं, जो हैं वो छोटे आकार की और केमिकल में सनी हुई हैं। पेयजल तो दूर की बात, अब इस नदी के पानी से हो रहे संक्रमण से त्वचा रोग और कैंसर तेजी से फैल रहा है।
सुसवा नदी दून घाटी के एक बड़े क्षेत्र के एक्विफर को परिपूर्ण करती है, लेकिन जल की कमी से अब उसकी यह भूमिका भी कमजोर पड़ रही है और रसायन युक्त जल भूमिगत जल की गुणवत्ता को नष्ट कर रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ ही समय में यह क्षेत्र जलविहीन हो जाएगा और जो भूमिगत जल मिलेगा वह अत्यधिक प्रदूषित होगा। खैर मानव तो पलायन और रिवर्स आस्मासिस जैसी तकनीक से जान बचा सकता है लेकिन इस नदी पर निर्भर वन्य जीवों के लिये समस्या बढ़ती जा रही है। इस बात का भय है कि वन्यजीव कभी भी किसी बीमारी की चपेट में आ कर समाप्त हो सकते हैं।
कभी इस नदी में सैकड़ों जलपक्षियों का आवास होता था और इसके आसपास का रिवरबेड वेजिटेशन भी पक्षियों के कलरव से गुंजायमान रहता था। परन्तु आज इन पक्षियों की प्रजातियों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। रेड वैटल्ड लैपविंग, रिवर लैपविंग, सैंडपाइपर, ग्रीन शैंक, लिटिल कार्मोरेंट, लिटिल इग्रेट, कैटल इग्रेट, कामन किंगफिशर, व्हाइट चेस्टेड किंगफिशर, व्हाइट वैगटेल, व्हाइट ब्रोड वैगटेल, सिट्रीन वैगटेल, यलो वैगटेल, ब्लैक काइट इत्यादि पक्षी आज भी नदी क्षेत्र में रहते हैं और मानव द्वारा छोड़े जा रहे विष को पीने पर विवश हैं।
यदि समय रहते इस समस्या पर कदम नहीं उठाए गए तो दून घाटी, स्मार्ट सिटी देहरादून के अनस्मार्ट कार्यों के लिये याद की जाएगी और अपनी सारी पारिस्थितिक विरासत को खो बैठेगी।